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वर्ग व्यवस्था का अर्थ परिभाषा और विशेषताएं varg vyavstha ka artha paribhasha visheshataye

वर्ग व्यवस्था का अर्थ परिभाषा और विशेषताएं 

varg vyavstha ka artha paribhasha visheshataye 

वर्ग का अर्थ - 
                   "वर्ग सामाजिक व्यक्तियों का वह विशिष्ट संकुल (complex) का नाम है, जिसकी एक सामान्य स्थिति तथा भूमिकाएं होती है"।
 दूसरों शब्दों में वर्ग का तात्पर्य व्यक्तियों के एक ऐसे विशिष्ट समूह से है, जिसके हित एवं स्वार्थ सामान पर प्रस्थिति होने के कारण समान होते हैं"।
वर्ग व्यवस्था का अर्थ परिभाषा और विशेषताएं

 परिभाषाएं - 
1. मैकाइवरर एवं पेज -  "एक सामाजिक व समुदाय का वह हिस्सा है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर दूसरे भागो में प्रथक किया जा सके"।

2. कार्ल मार्क्स (karl mark) - 
 जिसमें संपत्ति तथा उत्पादन के साधन (भूमि तथा कारखाने) सामाजिक स्तरीकरण का आर्थिक आधार प्रस्तुत करते हैं"।

3. गूल्डनर (gouldner) - "एक सामाजिक वर्ग उन  व्यक्तियों या परिवारों का योग है, जिनकी आर्थिक लगभग एक जैसी होती है"।

वर्ग की विशेषताएं  (stratified system) - 

1. संस्तरणत्मक - वर्ग की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह है कि यह संस्तरणत्मक के रूप में रहते हैं। दूसरों में उतार-चढ़ाव का एक निश्चित क्रम होता है, जिसमें कुछ वर्ग ऊपर, कुछ वर्ग माध्यम तथा कुछ वर्ग निम्न स्तर में की माने जाते है तथा इसकी क्रमानुसार इन्हे सामाजिक प्रतिष्ठा, शक्ति व सुविधाएं प्राप्त होती हैं ।

उदाहरण के लिए पुलिस वर्ग को लिया जा सकता है जिसमें जिले स्तर पर पुलिस अध्यक्ष, फिर उप पुलिस अध्यक्ष, इंस्पेक्टर, सब इंस्पेक्टर, हवलदार व पुलिस मैन सिपाही रहते हैं स्तर के अनुसार ही इन्हें शक्ति, प्रतिष्ठा व सुविधाएं प्राप्त होती है। 

2 ऊंच-नीच की भावना - वर्ग व्यक्ति में ऊंच-नीच, श्रेष्ठ- हीन, तथा उच्च- निम्न की भावना को उत्पन्न करता है, जो व्यक्ति या वर्ग उच्च स्तर प्राप्त होते है वे अन्य वर्गों से अपने को श्रेष्ठ मानते हैं, दूसरे वर्ग के एवं सदस्यों से सामाजिक व्यवहार करते समय भी ये अपनी श्रेष्ठ व्यवहार में प्रदर्शित करते हैं ।

3. वर्ग चेतना - वर्ग चेतना वर्ग की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। ऐसा समाज का कोई भी वर्ग नहीं होता, जिसमें वर्ग चेतना न पाई जाती हो। वर्ग चेतना का आशय यह है कि प्रत्येक वर्ग इस परिप्रक्ष्य में सचेत रहता है कि दूसरे वर्गों की तुलना में उसकी वर्ग की प्रतिष्ठा कैसी है।
 कार्ल मार्क्स का कथन है कि वह चेतना ही वह प्रक्रिया है जो वर्गो को वास्तविक स्वरूप प्रदान करती है। वर्ग चेतना ही एक वर्ग को दूसरे वर्ग के सदस्यों में परस्पर संबंधों का निर्धारण करने, अपने अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहने का तथा   अधिकार हनन होने पर संघर्ष करने को प्रेरित करती है।
 वर्ग चेतना ही वर्ग चेतना ही वर्ग सदस्यों में पारस्परिक प्रेम, सहयोग  अपनत्व को जन्म देती हैं।

4. पारस्परिक निर्भरता वर्ग भेद होने के पश्चात भी सामान्यत: समाज के सभी वर्गों में परस्पर निर्भरता बनी रहती है। प्रत्येक वर्ग की अनेकानेक आवश्यकता होती है, जिनकी पूर्ति दूसरे वर्ग के सहयोग के बिना नहीं हो पाती।
 अतः सभी वर्ग एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं, तभी समाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है।
 उदाहरण के लिए पूंजीपति वर्ग के लिए अपने कारखाने या मिल चलाने हेतु श्रमिकों व एजेंटों, सेलेरो आदि की आवश्यकता होती है इसी प्रकार श्रमिक वर्ग को अपनी उतार पूर्ति हेतु श्रम खरीदने वालों की आवश्यकता होती है 
अत: वर्ग पारस्परिक निर्भर रहते हैं ।

5. उपवर्ग - किसी भी समाज के चाहे वर्गों की संख्या कितनी भी क्यों ना हो, चाहे वर्ग निर्धारण का आधार कुछ भी क्यों ना हो, किंतु प्रत्येक वर्ग के अनेकानेक उपसर्ग निश्चित रूप से पाए जाते हैं। दूसरों शब्दों में वर्णन अनेक स्तरों या भागों में विभक्त रहता है।
 उदाहरण के लिए विद्यार्थी या छात्र वर्ग को ही लिया जा सकता है। इसमें प्रायमरी स्कूल के छात्र, मिडिल स्कूल के छात्र, हाई स्कूल के छात्र, महाविद्यालय के छात्र तथा विश्वविद्यालय के छात्र भी आ जाते हैं इसलिए कहा जा सकता है कि वर्ग के अनेक उपवर्ग होते हैं ।

6. जन्म का महत्व नहीं - वर्ग निर्माण की सदस्यता में जन्म नहीं होता। दूसरे शब्दों में यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं होता कि व्यक्ति ने जिस वर्ग में जन्म दिया हो वह मृत्यु पर्यंत उसी का सदस्य बना रहेगा। वर्ग की सदस्यता का निर्धारण तो  वैयक्तिक कुशलता या योगिता, आर्थिक स्थिति, आय, आयु, शिक्षा आदि के द्वारा होता है। कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ग की सदस्यता व्यक्तिगत परिश्रम व प्रयासों से प्राप्त कर सकता है इसीलिए कहा जा सकता है कि वर्ग में जन्म का महत्व नहीं होता।
 उदाहरण के रूप में डॉ. हरिसिंह गौर का जन्म एक निर्धन वर्ग में के परिवार में हुआ था, किंतु अपने व्यक्तिगत प्रयासों एवं परिश्रम से उच्च शिक्षा प्राप्त कर उच्च स्तर को प्राप्त किया हैं।

7. कम स्थिरता  -  वर्गो का निर्माण जितने भी आधरो पर होता है  सभी स्थिर नहीं रहते,बल्कि इनमें परिवर्तनशीलता  का गुण पाया जाता है और एक वर्ग की सदस्यता को छोड़कर कभी भी किसी कोई व्यक्ति किसी दूसरे वर्ग में पहुंच सकता है, किंतु इसका यह आशय नहीं की एक बार से दूसरे वर्ग में पहुंच सकता है, किंतु इसका यह आशय नहीं की एक वर्ष से दूसरे वर्ग पहुंचने में व्यक्ति को कुछ मिनट या  घंटे लगते हो। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी वर्ग में  पहुंचने में कुछ समय आवश्यकता लगता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्ग व्यवस्था परिवर्तन व्यवस्था होती हैं।

8. सामान्य जीनव विद्या - सामान्य एक वर्ग के सदस्यो की जीवन विद्या या जीवन जीने के ढंग सामान्यता के लिए होते हैं। 
  उदाहरण के रूप में उच्च वर्ग या स्तर के व्यक्तियों में भौतिकता की वस्तुओं को विशेष महत्व दिया जाता है ।नवीनता को अपनाने में या ग्रहण करने में यही वर्ग अन्य वर्गों से आगे रहता है।आगे रहने के लिए अच्छे से अच्छा व सुंदर  भवन, घूमने के लिए मोटर गाड़ियां, पहनने के लिए आधुनिक वस्त्र व आभूषण आदि को उच्च वर्ग के सदस्य अधिक महत्व देते हैं।
 थस्टिर्न वेब्लन (T. Veblen) ने अपने विलासी पर के सिद्धांत में उच्च वर्गों को सामान्य जीवन विद्या से स्पष्ट किया हैै।

9.  वर्गो की अनिवार्यता किसी भी ऐसे सामाज की कल्पना की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जिसमें आयू, लिंग, शिक्षा, व्यवसाय, आर्थिक स्थिति व योग्यताओ के आधार पर समाज के सभी सदस्य सामान्य हो। 
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि विभिन्न आधारों पर असामनता प्रत्येक समाज की एक विशिष्टता होती है, जिससे सवत: ही वर्गों का निर्माण हो जाता है । 

10. खुली व्यवस्था - जाति  वर्ग व्यवस्था के सामान्य कठोर एवं अपरिवर्तनशीलता का गुण वर्ग व्यवस्था में नहीं पाया जाता। वरन् वह तो खुली व्यवस्था का प्रतीक है। किसी भी वर्ग में कोई भी व्यक्ति कभी भी आ जा सकता है। न तो वर्ग में शामिल होने वाले को भी रोका जाता है और ना ही जाने वाले सदस्यो को। 
उदाहरण लिए आज के निम्न वर्ग के किसी सदस्य को लॉटरी खुलने पर वह कल ही उच्च वर्ग का सदस्य बन सकता है ।
इसी प्रकार आज पूजीपति का यदि कल व्यापार चौपट हो जाए तथा वह दिवालिया हो जाए तो वह निम्न वर्ग का सदस्य हो जाता है। संक्षेप में वर्ग व्यवस्था सभी के लिए खुली व्यवस्था होती है ।  

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